शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

क्यूँ दहलता है दिल मेरा, मेरे ही इस देश में

क्यूँ दहलता है दिल मेरा, मेरे ही इस देश में,
क्यूँ अंजाना सा हूँ मैं, अपने ही परिवेस में.

क्यूँ न लूँ अब मैं आनंद, उस चांदनी रात का,
जो होता था शुकुने दिल, हर खासो-आम का.

क्यूँ सताता है मुझे, डर बम बारूद का,
क्यूँ नहीं अब मैं परिंदा, खुले आसमान का.

क्यूँ ना मैं अब लड़ मरुँ, उन से जो आततायी हैं,
भ्रस्टाचार और हिंसा के, जो भी ये अनुयायी हैं.

बदल रहा है वक्त, कहीं इतना न ये बदल जाये,
कायरता पर्याय भारत का, कहीं एक दिन न बन जाये.

नेता जी !

सच्चाई से पर्दा कीजिये, रूह तक जल जाएगी,
अब न आयें हमारे घर, आह निकल जाएगी.

आप खुश हैं बस खुश रहें, रहें हमेशा गद्दों पे,
गलती से भी गलती ना हो, नजर ना पढ जाये गड्डों पे.

हम गड्डों में जीते हैं, यही हमारा भाग्य है,
फिर भी हम ने इनको चुना, लोकतंत्र का दुर्भाग्य है.

डूब मरो ऐ भारतवासी, तूम अब हृदयहीन हुए

डूब मरो ऐ भारतवासी, तूम अब हृदयहीन हुए,
छोड़ सौर्ध का अमृत, द्वेष के शौकीन हुए.

अच्छे कर्म अब कहाँ, यहाँ किसी को भाता है,
हर दिन एक नया कुकर्म, समाचारों मे छा जाता है.

मुंबई की पीड़ा, अब भी दिल मे भारी है,
अब आपस मे लड़ने की, तेरी मेरी बारी है.

बिहार, माह्रास्ट अब, पकिश्तान ऑर चीन हुए
डूब मरो ऐ भारतवासी, तूम अब हृदयहीन हुए.

कहाँ गए अब वो युवा, जो ओरों के काम आयें,
निःस्वार्थ और निश्छलता से, नित देश पे जो मिट जाएँ.

भार्स्तम से भी भ्रस्ट, अब वो हमारे नेता हैं,
लोकतंत्र के नाटक में, सब मंजे हुए अभिनेता हैं.

ये जात पात के बंधन, अब भी हम पे भारी है,
भरे पुरे समाज में अब भी, हर नारी बेचारी है.

सिड़ी चढ़े सफलता की, पर सोच पाषाण-कालीन हुए,
डूब मरो ऐ भारतवासी, तूम अब हृदयहीन हुए.