क्यूँ दहलता है दिल मेरा, मेरे ही इस देश में,
क्यूँ अंजाना सा हूँ मैं, अपने ही परिवेस में.
क्यूँ न लूँ अब मैं आनंद, उस चांदनी रात का,
जो होता था शुकुने दिल, हर खासो-आम का.
क्यूँ सताता है मुझे, डर बम बारूद का,
क्यूँ नहीं अब मैं परिंदा, खुले आसमान का.
क्यूँ ना मैं अब लड़ मरुँ, उन से जो आततायी हैं,
भ्रस्टाचार और हिंसा के, जो भी ये अनुयायी हैं.
बदल रहा है वक्त, कहीं इतना न ये बदल जाये,
कायरता पर्याय भारत का, कहीं एक दिन न बन जाये.
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
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Beautiful! Just loved it!
जवाब देंहटाएंDeepanjan
Very nicely written. issi liye kehte hain Kavita mann ke bhav prakat karne ka sabse achha madhyam hota hai. Good start. Keep it up. All the best. hope to c some more stuffs from you.
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