शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

क्यूँ दहलता है दिल मेरा, मेरे ही इस देश में

क्यूँ दहलता है दिल मेरा, मेरे ही इस देश में,
क्यूँ अंजाना सा हूँ मैं, अपने ही परिवेस में.

क्यूँ न लूँ अब मैं आनंद, उस चांदनी रात का,
जो होता था शुकुने दिल, हर खासो-आम का.

क्यूँ सताता है मुझे, डर बम बारूद का,
क्यूँ नहीं अब मैं परिंदा, खुले आसमान का.

क्यूँ ना मैं अब लड़ मरुँ, उन से जो आततायी हैं,
भ्रस्टाचार और हिंसा के, जो भी ये अनुयायी हैं.

बदल रहा है वक्त, कहीं इतना न ये बदल जाये,
कायरता पर्याय भारत का, कहीं एक दिन न बन जाये.

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